Tuesday, August 15, 2017

Partition..

A poem on partition of India


विभाजन ..

आइये एक कहानी है सुनाते,
हिंदुस्तान की कहानी, जिसे आज़ादी है गाती। 

एक परिवार था, मत पूछो कहाँ,
प्यारा सा, बेहेन भाइयो, रिश्ते नातो से भरा,
आँगन में जिनके त्यौहार गूंजा करते थे,
बिना भेद भाव के जहां गले लगा करते थे। 

बिखर गया है आज वो, भीड़ में कही खो गया,
लोग तो आगे बढ़ गए, पर वो खँडहर हो गया। 
किसी ने इस कदर, उसकी आबरू को है नोचा,
की आज भी उसके निशाँ, दीखते है जिस्म पर। 

नफरत भरी आँखों में, इस कदर,
की आज भी परिंदे उसे देख, जाते है सिहर,
जो कभी एक दूसरे की, हिम्मत का हिस्सा थे,
वह भाई अब, नए घरो में करते है बसर। 

नाम नए ले लिए, पीढ़ियां भी बदल गयी,
प्रगति की चादर से, पुरानी इमारत भी ढक गयी,
उस खँडहर में अब, न ही किरणे है बची,
जो थोड़ी उम्मीद थी, आंसुओं में बह गयी। 

लकीर जब खींची थी किसीने, इस परिवार के दो टुकड़े हुए,
सोचा की अगर साथ रहे, तो एक दूसरे को ख़तम करेंगे,
पर आज भी इनमे, वही राक्षस बास्ते है,
कोई पीछे मुड़कर देखे, तो बताये, कैसे रिश्ते सजते है। 

क्या हांसिल किया अलग होकर,
आज तक बैठे है दिलो में आग लेकर,
बस पुरानी यादों के सहारे जी रहे है,
एक दूसरे के प्यार को तरस्कर। 

कई बार दोनों ने कोशिशें की,
पर नयी रफ़्तार में जज़्बात नहीं है बास्ते,
यहां मिलती तकनीकियां, मारने की, 
मिटाने की, एक दूसरे को निचा दिखने को तरसते। 

कोई बताये,
क्या मिला एक दूसरे से लड़कर, मार कर,
जिस मिटटी के टुकड़े के लिए थे लड़े,
उसी की छाती को बार बार लाल कर। 

आज 70 सालो बाद भी, लोग रोते है, बिलखते है,
जब भी याद आता आज़ादी का मंज़र, लोग डरते है,
जिस दिन खुशियां आनी थी, उसने ग़म की चादर ओढ़ी,
वो आज भी हमारे सीनो  में, शूल से चुभते है। 

जिस दिन घरो में दीप जले थे,
वो आधी रात को आयी,
दीपक के उजाले में मिली,
तो बस उसके अन्धकार की गहराई। 

3 युद्ध और आर्थिक रूप की है ये महामारी,
जिससे जूझते दोनों, रोटी को तरसते है,
सडको पे, गलियों में, गाओं में,
बच्चे दूध को बिलखते है। 

वह मिटटी, जिसकी आबरू के लिए दी कई कुरबानियां,
उसकी छाती अब सूख रही है, ये है हमारी मेहरबानियां,
जो कभी सोना उगला करती थी, दुनिया को रोशन कर,
अब उसके अपने घर पर, गुमसुम है किलकारियाँ। 

विभाजन करने वाले चले गए,
पर उसके ग़म से जुझती नस्लें,
मरहम की उम्मीद में ज़िंदा है,
सूखी छाती और घाव लिए बदन पे। 

" वह माँ आज भी चौराहे पे,
   उम्मीद लगाए देख रही है। 
   कब दोनों बच्चे लौटेंगे,
   और कब ये खँडहर नाचेगा। 
   कब कड़वी यादों पे,
   मरहम वो लगाएगा। 
   कब फिर से इस आँगन में,
   ईद मानेगी, दीप वो जलाएगा।

   क्या ऐसा भी एक दिन आएगा,
   कब ऐसा भी एक दिन आएगा। "