Sunday, July 27, 2014

End or start ?...

This is my new piece that I have written after almost 2 and a half months. This time there is no introduction. Rather, I would like to ask my readers about their understanding, their opinion regarding this poem and also my writing (of-course).


अंजाम और आघाज़  … 


यादों के दरवाज़े पे, आज फिर किसी की दस्तक है,
आँखों के अधरों पे, आज फिर किसी की हरकत है,
सोचता क्या है साथी, उठ चल, जाकर देख तो ज़रा,
क्यों मेरी कब्र पे, आज रखा किसी ने मस्तक है। 

आनेवाले कह जाते है, आज फिर हमे याद आये हो,
घर में थी आज दिवाली, पर वो कोना संग लाये हो,
जहा बैठकर बातें करते थे, तुमसे हम दिन रात,
अब बस उस कोने में, आँखें नम कर आये हो। 

कैसे बतलाऊं उनको मैं, बिन उनके मुझे चैन नहीं,
हर पल बस सोचता हूँ, आराम मुझे दिन रैन नहीं,
कैसा होगा वहाँ का मंज़र, जिसका कभी मैं हिस्सा था,
जिसके साथ जीया जीवन भर, नए घर उन बिन चैन नहीं। 

सोचता हूँ उठ जाऊं, उन तक, पूछू तो सब कैसा है,
मुझ बिन तो संसार वही है, वही यहाँ का पैसा है,
अब समझ पाया हूँ, कि सब यहाँ एक पथिक है,
ये यूँही चलता रहेगा, जीवन ही कुछ ऐसा है। 

कितने आये, कितने गए, पर मैं वही पर बैठा रहा,
छोड़ आये थे मुझको जहा, वही चुप दफना रहा,
सब साथी यहाँ मुझसे कहते, अब छोड़ दे माया संसार की,
हाँ ज़ुबान से कर मैं, मन में चिंता करता रहा। 

ये कैसी जग की माया है, न भूख लगे न प्यास,
आँखें एक पल झपकी नहीं, फिर भी नींद नहीं है रास,
जग से तो चले गए, मिट गयी हमारी यादें,
न मिटी जो रह गयी, वो ईन आँखों की आस। 

सोचु यहाँ कि क्या मिला, जी कर सबके साथ,
पढ़ा लिखा सब कुछ किया, की हर सच्ची बात,
आँखों पे पड़ा पर्दा जग के, कैसे इसे उतारू,
लेटा हुआ इस कब्र में, रखे हाथ पर हाथ। 

जी रहे जो क्यों न देखे, जो मुर्दे को दिख जाता है,
माया का पर्दा पड़ा, सो बुद्धि नहीं पाता है,
इसलिए शायद डरता जग, मुर्दे से जब भी मिले,
दर्पण में देख चेहरा अपना, संसार घबरा जाता है। 

कैसे सबको मैं समझूँ, हम सब डरते रहते है,
इंसानो के आतंक से, चुप चाप यहाँ पर सहमे है,
इससे तो अच्छा होता, कि बीटा तू मुझे जला देता,
यूँ इस तरह न रहना पड़ता, जहा नाले बहते है। 

मरने की जो सच्चाई है, उसपे कैसे मैं विश्वास करू,
कल तक जिस देह ने मेरा साथ दिया, उसका कैसे मैं त्याग करू,
इस जीवन की सच्चाई पे, बैठा मैं यूँही सोच रहा,
खुद को आँखों के सामने देख, कैसे मैं विश्वास करू। 

मरने से पहले मैं था इसमें, ये मेरा आघाज़ था,
इससे ही बनाया ये जहाँ, जिसपे मैंने किया राज था,
सोच रहा इस मोड़ पर, कैसे आघाज़ को अंजाम करू,
सब मुझको सुने, मैं सबको सुनु, क्या कभी कोई ऐसा साज़ था। 

अब इस देह में जाकर देखू, किया क्या इसका मैंने,
जब ज़िंदा था तो उलझा रहा, भरोसा  न किया इसका मैंने,
ये चीख-चीख कहता रहा, माया से बाहर आजा,
मर गया अगर तो खो जायेगा, पर अनसुना किया मैंने। 

ये गाथा है आघाज़ की, अंजाम सुनाती जो हमको,
शुरुआत से जो मिला, उसकी कदर बताती है हमको,
कब्र में जाने के बाद, ये देह न फिर पायेगा,
सारे काम खत्म कर लो, नहीं तो चिंता संग रह जायेगा। 

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